दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || 14||
दैवी-दिव्य; हि-वास्तव में; एषा–यह; गुण-मयी-प्रकृति के तीनों गुणों से निर्मित; मम–मेरी; माया भगवान की एक शक्ति जो उन जीवात्माओं से भगवान के वास्तविक दिव्य स्वरूप को आच्छादित रखती है जिन्होंने अभी तक भगवत्प्राप्ति नहीं की; दुरत्यया-पार कर पाना कठिन; माम्-मुझे; एव-निश्चय ही; ये-जो; प्रपद्यन्ते-शरणागत होना; मायाम्-एताम्-इस माया को; तरन्ति–पार कर जाते हैं; ते–वे।
BG 7.14: प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।
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कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि माया मिथ्या है और इसका कोई अस्तित्त्व नहीं है। वे कहते हैं कि हमें माया की अनुभूति केवल अज्ञानता के कारण होती है किन्तु जब हम ज्ञान से युक्त हो जाते हैं तब माया का अस्तित्त्व समाप्त हो जाएगा। वे दावा करते हैं कि इससे हमारा भ्रम दूर हो जाएगा और हम आत्मा को परम सत्य मानने लगेंगे। किन्तु भगवद्गीता का यह श्लोक ऐसे सिद्धान्त का खण्डन करता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि माया भ्रम नहीं है, यह भगवान की शक्ति है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस प्रकार से वर्णन किया गया है-
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-4.10)
"माया भगवान की शक्ति है जबकि भगवान शक्तिमान हैं।"
रामचरितमानस में उल्लेख किया गया है
सो दासी रघुबीर कि समुझें मिथ्या सोपि।
"कुछ लोगों का विचार है कि माया मिथ्या अर्थात् अस्तित्वहीन है परन्तु माया वास्तव में एक शक्ति है जो भगवान की सेवा में लगी रहती है।"
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि माया पर विजय पाना अत्यंत कठिन है क्योंकि यह उनकी शक्ति है। यदि कोई माया पर विजय पा लेता है तब उसका अर्थ यह होगा कि उसने स्वयं भगवान को जीत लिया है। इसलिए न तो कोई भगवान को पराजित कर सकता है और न ही माया को। मन माया से निर्मित है इसलिए कोई भी योगी, ज्ञानी, तपस्वी या कर्मी केवल अपने प्रयास से मन पर सफलतापूर्वक नियंत्रण प्राप्त नहीं कर सकता।
उस समय अर्जुन यह प्रश्न कर सकता था-"फिर मैं माया पर कैसे विजय पा सकूँगा" इसका उत्तर श्रीकृष्ण ने इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में दिया है। वे कहते हैं-"अर्जुन, यदि तुम मेरे शरणागत हो जाते हो तब मैं अपनी कृपा से तुम्हें संसार रूपी महासागर से पार करा दूंगा। मैं माया को संकेत कर दूंगा कि यह आत्मा मेरी हो गयी है अतः इसे मुक्त करो।" भगवान का आदेश पाने पर माया शक्ति मनुष्य को अपने बंधन से मुक्त कर देती है। माया कहती है-"मेरा कार्य केवल इतना ही था कि जीवात्मा को तब तक कष्ट दिया जाए जब तक वह भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेती। अब चूँकि इस जीवात्मा ने भगवान की शरण ले ली है इसलिए मेरा कार्य संपूर्ण हो गया है।"
हम अपने जीवन के उदाहरण से भी इसे समझ सकते हैं। आप अपने मित्र से भेंट करने के लिए उसके घर के बाहर के द्वार पर पहुँच जाते हैं। उसके घर के बाहर लगे सूचना पट्ट पर 'कुत्ते से सावधान रहें' लिखा हुआ है। उसका पालतु कुत्ता जर्मन शेफर्ड उसके लॉन में खड़ा है। वह कुत्ता आप पर भौंकने लगता है। फिर आप बाड़े के आस-पास जाकर पिछले द्वार से उसके घर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। किन्तु वही कुत्ता वहाँ भी आ जाता है और क्रोध से गुर्राने लगता है जैसे कि यह कह रहा हो-"देखता हूँ कि तुम कैसे घर में प्रवेश करने का साहस कर सकते हो।" जब आपके पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता तब आप अपने मित्र को पुकारते हैं और फिर वह अपने घर से बाहर निकल कर देखता है कि उसका कुत्ता आपको तंग कर रहा है। तब वह कहता है-'टॉमी नहीं! टॉमी आओ और यहाँ बैठो।' कुत्ता तुरन्त शांत हो जाता है और अपने स्वामी की ओर आकर बैठ जाता है। अब आप भयमुक्त होकर प्रवेश द्वार खोलकर घर में प्रवेश करते हैं। समान रूप से प्राकृत शक्ति माया जो हमें सताती है वह भगवान की दासी है। अपने प्रयासों से हम उस पर विजय नहीं पा सकते। उससे पार पाने का एक मात्र उपाय भगवान की शरणागति है।
इसे इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने महत्त्वपूर्ण ढंग से संप्रेषित किया है। यदि हम माया पर विजय पाना चाहते हैं तब हमें केवल भगवान के शरणागत होना चाहिए। तब फिर लोग भगवान के शरणागत क्यों नहीं होते? इसकी व्याख्या श्रीकृष्ण अगले श्लोक में करेंगे।